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मैं और तुम / सुमति बूधन
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जिसे तुम ढूँढ रहे हो ,
जाने कौन है वह ?
जिसे मैं ढूँढ रही हूँ,
वह तुम ही हो ।
उस तलाश में तुम मुझे नकारते रहे।
पर मैं..........
उस तलाश में तुम्हें सकारती रही ।
अग्नि –शिखाओं के बीच ,
तुम्हारे उन हाथों की तपीश को
मैं पूर्णतया वरा था ।
उस तपन से पिघली मैं
और ढली हर अधिकार से परे
नये संस्कारों के साँचे में ।
तुम जा बैठे
अशान्त, दिग्भ्रान्त
अपने मन के कोने में
नितान्त अकेले,अपनी दुनिया में।
मैं प्रतीक्षारत,
नयनों के द्वार पर खो गई,
ऩिश्चेत, निसहाय, निर्भाव,
अपने ही चहरों के मेले में,
कई प्रश्नचिन्हों की रेखाओं के घेरे में।
पर तुम जान न सके कभी भी
कि मैं.......
कभी वरमाला से सजी तुम्हारे लिए,
कभी सूखी माला –सी ,
बहती रही नदी के बीच ।