पाप-पुण्य में अंतर जान कर
सोचा मैं कुछ अच्छा करूँ
अच्छा तो कुछ हद तक किया होगा
लेकिन बुरा तो कभी नहीं किया
हाँ, मेरे नुकसान से किसी का भला हुआ
तो मैंने उसे पुण्य समझा
और पाप!
जब अपनी भलाई हुई किसी के नुकसान के बाद
भलमानस का पाठ पढ़-पढ़ा कर ही बड़ा हुआ
फिर आखिर में,
ऐसा क्यों होता है,
भला के बदले भला की अपेक्षा ही की मैं ने
बुरा तो नहीं हुआ, पर
भला भी तो नहीं हुआ
किस्मत है या फिर अपने कर्मों के फल ?
यदि किस्मत है तो उस को अपनाया जाता है
और यदि कर्म का फल तो वह पत्थर की लकीर बन जाती है।
बस कर्मफल और किस्मत जैसे सौदागर के हाथों
बिक जाता है अंत में
आदमी!