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रात-भर हम / कुमार रवींद्र
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रात-भर हम
रहे सूरज के भरोसे
सुबह तो वह आयेगा ही
पर सुबह ने ठगी की
वह धुंध ओढ़े हुए आई
बावरे आकाश ने भी
बर्फ की चादर बिछाई
और हम
बैठे रहे इस बात में ही
धूप का देवा कभी मुस्काएगा ही
ओस की बूँदें जमी हैं
पत्तियों पर
घास पर भी
रहा गुमसुम-मौन जंगल
और सूना देवघर भी
सोचते हम -
गाँव का बूढ़ा भिखारी
अभी कबिरा का भजन तो गाएगा ही
घोसले में दुबककर
बैठा हुआ है सगुनपाखी
नदी भी थिर दे रही
अंधे समय की मूक साखी
याद आई
दुआ हमको पूर्वजों की
कभी तो यह समय भी कट जाएगा ही