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एक और ढंग / श्रीकांत वर्मा

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भागगर अकेलेपन से अपने
  तुममें मैं गया।
    सुविधा के कई वर्ष
     तुमने व्यतीत किए।
         कैसे?
           कुछ स्मरण नहीं।

 मैं और तुम! अपनी दिनचर्या के
         पृष्ठ पर
            अंकित थे
              एक संयुक्ताक्षर!

क्या कहूँ! लिपि को नियति
    केवल लिपि की नियति
       थी -
         तुममें से होकर भी,
            बसकर भी
           संग-संग रहकर भी
                 बिलकुल असंग हूँ।

सच है तुम्हारे बिना जीवन अपंग है
      - लेकिन! क्यों लगता है मुझे
             प्रेम
               अकेले होने का ही
                   एक और ढंग है।