भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

टूटी पड़ी है परंपरा / श्रीकांत वर्मा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:06, 11 जनवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीकांत वर्मा }} Category:कविता <poeM> टू...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

टूटी पड़ी है परंपरा
शिव के धनुष-सी रखी रही परंपरा
कितने निपुण आए-गए
धनुर्धारी।
कौन इसे बौहे? और कौन इसे
कानों तक खींचे?
एक प्रश्नचिह्न-सी पड़ी रही परंपरा।
मैं सबमें छोटा और सबसे अल्पायु -
मैं भविष्यवासी।
मैंने छुआ ही था, जीवित हो उठी।
मैंने जो प्रत्यंचा खींची
तो टूट गई परंपरा।
मुझ पर दायित्व
कंधों पर मेरे ज्यों, सहसा रख दी हो
किसी ने वसुंधरा।
सौंप मुझे मर्यादाहीन लोक
टूटी पड़ी है परंपरा।