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कुछ शेर / अब्दुल हमीद 'अदम'

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ऐ दोस्त मोहब्बत के सदमे तन्हा ही उठाने पड़ते हैं
रह-बर तो फ़क़त इस रस्ते में दो गाम सहारा देते हैं.

बढ़ के तूफ़ान को आगोश में ले-ले अपनी
डूबने वाले तेरे हाथ से साहिल तो गया.

देखा है किस निगाह से तू ने सितम-ज़रीफ़
महसूस हो रहा है मैं ग़र्क़-ए-शराब हूँ.

दिल अभी अच्छी तरह टूटा नहीं
दोस्तों की मेहरबानी चाहिए.

दिल ख़ुश हुआ है मस्जिद-ए-वीराँ को देख कर
मेरी तरह ख़ुदा का भी ख़ाना ख़राब है.

गुलों को खिल के मुरझाना पड़ा है
तबस्सुम की सज़ा कितनी बड़ी है.

इंसाँ हूँ अदम और ये यजदाँ को ख़बर है
जंनत मेरे असलाफ़ की ठुकराई हुई है.

कहते हैं उम्र-ए-रफ़्ता कभी लौटती नहीं
जा मै-कदे से मेरी जवानी उठा के ला.

लोग कहते हैं के तुम से ही मोहब्बत है मुझे
तुम जो कहते हो के वहशत है तो वहशत होगी.

महशर में इक सवाल किया था करीम ने
मुझ से वहाँ भी आप की तारीफ़ हो गई.

मर ने वाले तो ख़ैर हैं बे-बस
जी ने वाले कमाल करते हैं.

मुझे तौबा का पूरा अज्र मिलता है उसी साअत
कोई ज़ोहरा-जबीं पी ने पे जब मजबूर करता है.

साक़ी मुझे शराब की तोहमत नहीं पसंद
मुझ को तेरी निगाह का इल्ज़ाम चाहिए.

सवाल कर के मैं ख़ुद ही बहुत पशेमाँ हूँ
जवाब दे के मुझे और शर्म-सार न कर.

सिर्फ़ एक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में
मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही.

ज़ाहिद शराब पी ने दे मस्जिद में बैठ कर
या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो.

ज़बान-ए-होश से ये कुफ़्र सरज़द हो नहीं सकता
मैं कैसे बिन पिए ले लूँ ख़ुदा का नाम ऐ साक़ी.

ज़रा एक तबस्सुम की तकलीफ़ करना
के गुलज़ार में फूल मुरझा रहें हैं.

ज़िंदगी नाम है रवानी का
क्या थमेगा बहाव पानी का.