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गालियाँ तनख़्वाह ठहरी है / ज़फ़र
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गालियाँ तनख़्वाह ठहरी है अगर बट जाएगी
आशिक़ों के घर मिठाई लब-ए-शकर बट जाएगी.
रू-ब-रू गर होगा यूसुफ़ और तू आ जाएगा
उस की जानिब से ज़ुलेख़ा की नज़र बट जाएगी.
रह-ज़नों में नाज़ ओ ग़मज़ा की ये जिंस-ए-दीन-ओ-दिल
जूँ मता-ए-बुर्दा आख़िर हम-दिगर बट जाएगी.
होगा क्या गर बोल उट्ठेगा ग़ैर बातों में मेरी
फिर तबीअत मेरी ऐ बे-दाद गर बट जाएगी.
दौलत-ए-दुन्या नहीं जाने की हरगिज़ तेरे साथ
बाद तेरे सब यहीं ऐ बे-ख़बर बट जाएगी.
कर ले ऐ दिल जान को भी रंज ओ ग़म में तू शरीक
ये जो मेहनत तुझ पे है कुछ कुछ मगर बट जाएगी.
मूँग छाती पे जो दलते हैं किसी की देखना
जूतियों में दाल उन की ऐ ‘ज़फ़र’ बट जाएगी.