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सागर-कन्या / प्रतिभा सक्सेना

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सागर की कन्या, विष बंधु तेहि नाते सों,
ताही सों बहिनी है रंभा अरु वारुणी,
वाके पिये होत मद, इह का पाये ही होत
कितै गुनी अधिक इह मद-संचारिणी!

टिकै कहूँ नाहीं, कभै इहाँ, कभै उहाँ,
इह के मन की तरंग, जौन भावे सो करति हैं!
पति कइस कहे कुछू, बस्यो ससुरारै माहिं,
छीर-सिन्धु माँहिं आँख मूँदि के रहत है!
पुरातन पुरुष की वधू नवेली, अलबेली अहै
तासों ही ह्वै गईं ई चंचला विहारिणी!

जा के रतनारे नयनन के कटाच्छ ही ते
झूमि परे सोये हरि जाय शेष शैया पे!
जाके पास रहै ताके धरा पे न परत पाँय
मत्त हुई जात जन जाके अपनाये ते!
तिहूँ लोक जोहै मुख किरपा हित, देखे रुख
चाहे दीठ जाकी सदा सुख- संचारिणी!

देवि, कृपा दृष्टि मोंपे सदा ही बनायो,
हाथ जोरति, परति पाँय सीस झुका आपुनो,
तो सम न लीलामयी, मो सम पुकारी कौन
मेरो अपराध सारो तोहे ही ढाँपनो!
का कहौं तोहार गुण, बानी को लाज लगे
मुक्त ह्वै लुटावति, ढरै जो काम दायिनी!