भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

संदर्भहीन / प्रतिभा सक्सेना

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:44, 8 मार्च 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना }} {{KKCatKavita}} <poem> सपनों ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सपनों जैसे नयनों में झलक दिखा जाते
कैसे होंगे सरिता तट, वे झाऊ के वन!

घासों के नन्हें फूल उगे होंगे तट पर,
रेतियाँ कसमसा पग-तल सहलाती होंगी,
वन-घासों को थिरकन से भरती मंद हवा,
नन्हीं-नन्हीं पाँखुरियाँ बिखराती होगी.
जल का उद्दाम प्रवाह अभी वैसा ही है,
या समा गया तल तक आ कोई खालीपन!

जिन पर काँटों की बाड़ अड़ी थी पहले से,
वर्जित उन कुंजों में कोई पहुँचा है क्या .
संदर्भ-हीन कर देता सारे ही नाते,
धीमे से कानों तक आता कोई स्वर क्या!
क्या बाँस-वनों में पवन फूँकता है वंशी,
रातों में रास रचाता क्या मन-वृंदावन!

ढलते सूरज की किरणें लहरों में हिलमिल,
जब जल के तल में रचें झिलमिली राँगोली,
शिखरों पर बिखरी रहें सुनहरी संध्यायें,
झुनझुना बना दे तरुओं को खगकुल टोली,
लहरों का तट तक आना, और बिखर जाना
कर जाता मन को अब भी वैसा ही उन्मन!

क्या वर्तमान से कभी परे हो जाते हो
बेमानी लगने लगता सारा किया-धरा,
सब कुछ पाने बाद कभी क्या लगता है,
कुछ छूट गया है कहीं, रह गया बिन सँवरा?
मन पूरी तरह डूब पाता क्या रंगों में,
यह भी सच-सच बतला दो, अब कैसे हो तुम!