अखरावट / पृष्ठ 4 / मलिक मोहम्मद जायसी
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दोहा
जस घिउ होइ जराइ कै तस जिउ निरमल होइ ।
महै महेरा दूरि करि, भौग करै सुख सोइ ॥
सोरठा
हिया कँवल जस फूल, जिउ तेहि महँ जस बासना ॥
तन तजि मन महँ भूल, मुहमद तब पहचानिए ॥31॥
जा-जानहु जिउ बसै सो तहवाँ । रहै कवँल-हिय संपुट जहँवाँ ॥
दीपक जैस बरत हिय-आरे । सब घर उजियर तेहि उजियारे ॥
तेहि महँ अंस समानेउ आई । सुन्न सहज मिलि आवै जाई ॥
तहाँ उठै धुनि आउंकारा । अनहद सबद होइ झनकारा ॥
तेहि महँ जोति अनूपम भाँती । दीपक एक, बरै दुइ बाती ॥
एक जो परगट होइ उजियारा । दूसर गुपुत सो दसवँ दुवारा ॥
मन जस टेम, प्रेम दीया । आसु तेल, दम बाती कीया ॥
दोहा
तहँवा जम जस भँवरा फिरा करै चहुँ पास ।
मीचु पवन जब पहुँचै, लेइ फिरै सो बास ॥
सोरठा
सुनहु बचन एक मोर, दीपक जस आरे बरै ।
सब घर होइ अँजोर, मुहमद तस जिउ हीय महँ ॥32॥
रा -रातहु अब तेहि के रंगा । बेगि लागु प्रीतम के संगा ॥
अरध उरध अस है दुइ हीया । परगट, गुपुत बरै जस दीया ॥
परगट मया मोह जस लावै । गुपुत सुदरसन आप लखावै ॥
अस दरगाह जाइ नहिं पैठा । नारद पँवरि कटक लेइ बैठा ॥
ताकहँ मंत्र एक है साँचा । जो वह पढै जाइ सो बाँचा ॥
पंडित पढै सो लेइ लेइ नाऊँ । नारद छाँडि देइ सो ठाऊँ॥
जेकरे हाथ होइ वह कूँजी । खोलि केवार लेइ सो पूँजी ॥
दोहा
उगरे नैन हिया कर , आछै दरसन रात ।
देखै भुवन सो चौदहौ औ जानै सब बात ॥
सोरठा
कंत पियारे भेंट, देखौ तूलम तूल होइ ।
भए बयस दुइ हेंठ, मुहमद निति सरवरि करै ॥33॥
ला-लखई सोई लखि आवा । जो एहि मारग आपु गँवावा ॥
पीउ सुनत धनि आपु बिसारे । चित्त लखै,तन खोइ अडारै ॥
`हौं हौं करब डारहु खोई । परगट गुपुत रहा भरि सोई ॥
बाहर भीतर सोइ समाना । कौतुक सपना सो निजु जाना ॥
सोइ देखै औ सोई गुनई । सोई सब मधुरी धुनि सुनई ॥
सोई करै कीन्ह जो चहई । सोई जानि बूझि चुप रहई ॥
सोई घट घट होइ रस लेई । सोइ पूछै, सोइ ऊतर देई ॥
दोहा
सोई साजै अँतरपट, खेलै आपु अकेल ।
वह भूला जग सेंती, जग भूला ओहि खेल ॥
सोरठा
जौ लगि सुनै न मीचु, तौ लगि मारै जियत जिउ ।
कोई हुतेउ न बीचु, मुहमद ऐकै होइ रहै ॥34॥
वा-वह रूप न जाइ बखानी । अगम अगोचर अकथ कहानी ॥
छंदहि छंद भएउ सो बंदा । छन एक माहँ हँसी रोवंदा ॥
बारे खेल, तरुन वह सोवा । लउटी बूढ लेइ पुनि रोवा ॥
सो सब रंग गोसाईं केरा । भा निरमल कबिलास बसेरा ॥
सो परगट महँ आइ भुलावै । गुपत में आपन दरस देखावै ॥
तुम अनु गुपुत मते तस सेऊ । ऐसन सेउ न जानै केऊ ॥
आपु मरे बिनु सरग न छूवा । आँधर कहहिं, चाँद कहँ ऊवा ?
दोहा
पानी महँ जस बुल्ला, तस यह जग उतिराइ ।
एकहि आबत देखिए, एक है जगत बिलाइ ॥
सोरठा
दीन्ह रतन बिधि चारि, नैन, बैन, सरबन्न मुख ।
पुनि जब मेटिहि मारि, मुहमद तब पछिताब मैं ॥35॥
सा-साँसा जौ लहि दिन चारी । ठाकुर से करि लेहु चिन्हारी ॥
अंध न रहहु, होहु डिठियारा । चीन्हि लेहु जो तोहि सँवारा ॥
पहिले से जो ठाकुर कीजिय । ऐसे जियन मरन नहिं छीजिय ॥
छाँडहु घिउ औ मछरी माँसू । सूखे भोजन करहु गरासू ॥
दूध, माँसु, घिउ कर न अहारू । रोटी सानि करहु फरहारू ॥
एहि बिधि काम घटावहु काया । काम, क्रोध, तिसना, मद माया ॥
सब बैठहु बज्रासन मारी । गहि सुखमना पिंगला नारी ॥
दोहा
प्रेम तंतु तस लाग रहु करहु ध्यान चित बाँधि ।
पारस जैस अहेर कहँ लाग रहै सर साधि ॥
सोरठा
अपने कौतुक लागि, उपजाएन्हि बहु भाँति कै ।
चीन्हि लेहु सो जागि, मुहमद सोइ न खोइए ॥36॥
खा-खेलहु, खेलहु ओहि भेंटा । पुनि का खेलहु, खेल समेटा ॥
कठिन खेल औ मारग सँकरा । बहुतन्ह खाइ फिरे सिर टकरा ॥
मरन-खेल देखा सो हँसा । होइ पतंग दीपक महँ धँसा ॥
तन-पतंग कै भिरिंग कै नाई । सिद्ध होइ सो जुग जुग ताई ॥
बिनु जिउ दिए न पावै कोई । जो मरजिया अमर भा सोई ॥
नीम जो जामै चंदन पासा । चंदन बेधि होइ तेहि बासा ॥
पावँन्ह जाइ बली सन टेका । जौ लहि जिउ तन, तौलहि भेका ॥
दोहा
अस जानै है सब महँ औ सब भावहि सोइ ।
हौं कोहाँर कर माटी , जो चाहै सो होइ ॥
सोरठा
सिद्ध पदारथ तीनि, बुद्धि, पावँ औ सिर, कया ।
पुनि लेइहि सब छीनि, मुहमद तब पछिताब मैं ॥37॥
सा साहस जाकर जग पूरी । सो पावा वह अमृत-मूरी ॥
कहौ मंत्र जो आपनि पूँजी । खोलु केवारा ताला कूँजी ॥
साठि बरिस जो लपई झपई । छन एक गुपुत जाप जो जपई ॥
जानहु दुवौ बराबर सेवा । ऐसन चलै मुहमदी खेवा ॥
करनी करै जो पूजै आसा । सँवरे नाँव जो लेइ लेइ साँसा ॥
काठी घँसत उठै जस आगी । दरसन देखि उठै तस जागी ॥
जस सरवर महँ पंकज देखा । हिय कै आँखि दरस सब लेखा ॥
दोहा
जासु कया दरपन कै देखु आप मुँह आप ।
आपुहि आपु जाइ मिलु जहँ नहिं पुन्नि न पाप ॥
सोरठा
मनुवाँ चंचल ढाँप, बरजे अहथिर ना रहै ।
पाल पेटारे साँप, मुहमद तेहि बिधि राखिए ॥ 38॥
हा-हिय ऐसन बरजे रहई । बूडि न जाइ, बूड अति अहई ॥
सोइ हिरदय कै सीढी चढई । जिमि लोहार घन दरपन गढई ॥
चिनगि जोति करसी तें भागै । परम तंतु परचावै लागै ॥
पाँच दूत लोहा गति तावै । दुहुँ साँस भाठी सुलगावै ॥
कया ताइ कै खरतर करई । प्रेम के सँडसी पोढ कै धरई ॥
हनि हथेव हिय दरपन साजै । छोलनी जाप लिहे तन माँजै ॥
तिल तिल दिस्टि जोति सहुँ ठानै । साँस चढाइ कै ऊपर आनै ॥
दोहा
तौ निरमल मुख देखै जोग होइ तेहि ऊप ।
होइ डिठियार सो देखै अंधन के अँधकूप ॥
सोरठा
जेकर पास अनफाँस, कहु हिय फिकिर सँभारि कै ।
कहत रहै हर साँस, मुहमद निरमल होइ तब ॥39॥
खा -खेलन औ खेल पसारा । कठिन खेल औ खेलनहारा ॥
आपुहि आपुहि चाह देखावा । आदम-रूप भेस धरि आवा ॥
अलिफ एक अल्ला बड सोई । दाल दीन दुनिया सब कोई ॥
मीम मुहमद प्रीति पियारा । तिनि आखर यह अरथ बिचारा ॥
मुख बिधि अपने हाथ उरेहा । दुइ जग साजि सँवारा देहा ॥
कै दरपन अस रचा बिसेखा । आपन दरस आप महँ देखा ॥
जो यह खोज आप महँ कीन्हा तेइ आपुहि खोजा, सब चीन्हा ॥
दोहा
भागि किया दुइ मारग, पाप पुन्नि दुइ ठाँव ।
दहिने सो सुठि दाहिने, बाएँ सो सुठि बावँ ॥
सोरठा
भा अपूर सब ठावँ गुडिला मोम सँवारि कै ।
राखा आदम नाव, मुहमद सब आदम कहै ॥40॥
औ उन्ह नावँ सीखि जौ पावा । अलख नाव लेइ सिद्धू कहावा ॥
अनहद ते भा आदम दूजा । आप नगर करवावै पूजा ॥
घट घट महँ होइ निति सब ठाऊँ । लाग पुकारै आपन नाऊँ ॥
अनहद सुन्न रहै सब लागै । कबहुँ न बिसरे सोए जागै ॥
लिखि पुरान महँ कहाँ बिसेखी । मोहिं नहिं देखहु, मैं तुम्ह देखी ॥
तू तस सोइ न मोहिं बिसारसि । तू सेवा जीतै, नहिं हारसि ॥
अस निरमल जस दरपन आगे । निसि दिन तोर दिस्टि मोहिं लागे ॥