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फ़ज़ा के फिर आसमाँ भर थी / मनचंदा बानी

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फ़ज़ा के फिर आसमाँ भर थी
ख़ुशी सफ़र की उड़ान भर थी

वो क्या बदन भर ख़फ़ा था मुझ से
के आँख भी चुप गुमान भर थी

उफ़ुक़ के फिर हो गया मुनव्वर
लकीर सी इक के ध्यान भर थी

वो मौज क्या टूट कर गिरी है
तो क्या ये बस इम्तिहान भर थी

वो इक फ़साना ज़बान भर था
ये इक समाअत के कान भर थी

सबब के अब तक वो पूछता है
मेरी उदासी के आन भर थी

खुला समुंदर के चाँद भर था
हवा के शब बाद-बान भर थी

हमीं ने मिस्मार कर दिखाई
वो इक रुकावट चट्टान भर थी

शफ़क़ बनी आसमाँ में जा कर
जो ख़ूँ की बूँद इक निशान भर थी

न लौट पाया वो जानता था
के वापसी दरमियान भर थी

किसी ग़ज़ल में न आई 'बानी'
वो इक अज़ीयत के जान भर थी