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आँखों के ग़म-कदों में उजाले / अज़ीज़ 'नबील'
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आँखों के ग़म-कदों में उजाले हुए तो हैं
बुनियाद एक ख़्वाब की डाले हुए तो हैं
तलवार गिर गई है ज़मीं पर तो क्या हुआ
दस्तार अपने सर पे सँभाले हुए तो हैं
अब देखना है आते हैं किस सम्त से जवाब
हम ने कई सवाल उछाले हुए तो हैं
ज़ख़्मी हुई है रूह तो कुछ ग़म नहीं हमें
हम अपने दोस्तों के हवाले हुए तो हैं
गो इंतिज़ार-ए-यार में आँखें सुलग उठीं
राहों में दूर दूर उजाले हुए तो हैं
हम क़ाफ़िले से बिछड़े हुए हैं मगर 'नबील'
इक रास्ता अलग से निकाले हुए तो हैं