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ठंड से काँप रहा हूँ मैं / ओसिप मंदेलश्ताम
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ठंड से काँप रहा हूँ मैं
गूंगा ही बना रहना चाहता हूँ
पर आकाश में नाच रहा है स्वर्ण
मुझे आदेश दे रहा है गाने का
क्लान्त हो
ऎ बेचैन संगीतकार !
प्रेम कर, स्मरण कर और रो
पकड़ वह हल्की गेंद
फेंकी गई है जो
उस मद्धिम झिलमिलाते ग्रह से
कितना वास्तविक है
सम्बन्ध उस रहस्यमय दुनिया के साथ ?
कितनी तीख़ी उदासी है
कितनी भयानक बेचारगी है नाथ ?
कहीं ऎसा तो नहीं
सदा झिलमिलाने वाला
यह सितारा
टिमटिमा रहा है ग़लती से
मुझे तकलीफ़ दे रहा है
खरोंच रहा है जैसे
जंग लगे अपने बकसुए से
शरीर मेरा सारा
(रचनाकाल : 1912)