Last modified on 27 अप्रैल 2013, at 08:15

कोई भी तज़्किरा या गुफ़्तगू हो / पवन कुमार

Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:15, 27 अप्रैल 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


कोई भी तज़्किरा या गुफ़्तगू हो
तेरा चर्चा ही अब तो कू-ब-कू हो

मयस्सर बस वही होता नहीं है
दिलों को जिसकी अक्सर जुस्तजू हो

ये आँखें मुन्तज़िर रहती हैं जिसकी
उसे भी काश मेरी आरजू’ हो

मुख़ातिब इस तरह तुम हो कि जैसे
मेरा एहसास मेरे रूबरू हो

तुम्हें हासिल ज़माने भर के गुलशन
मेरे हिस्से में भी कुछ रंग ओ बू हो

नहीं कुछ कहने सुनने की ज़रूरत
निगाहे यार से जब गुफ्“तगू हो

तज़्किरा = चर्चा, कू-ब-कू = गली-गली, मुन्तजि’र = प्रतीक्षारत, मुख़ातिब = सामने