भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दर्द कौन समझेगा / पवन कुमार

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:39, 27 अप्रैल 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तूने बख़्शा तो है
मुझे
खुला आसमां
साथ ही दी हैं
तेज’ हवाएं भी
हाथों से हल्की जुम्बिश
देकर जमीं से ऊपर उठा
भी दिया है।
मगर
ये सब कुछ बेमतलब
सा लगता है,
ये आस्मां, ये हवाएं, ये
हल्की सी जुम्बिश।
काश!
तूने ये कुछ न दिया होता
बस मेरी कमान खोल दी
होती,
एक धागा है कि
जिसने बदल दिए हैं
मेरी आज़ादी के मायने,
डोर से बंधी पतंग का
दर्द कौन समझेगा।
(महिला दिवस पर दुनिया की आधी आबादी के नाम)