हर्षोद्गार / रामचंद्र शुक्ल

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(1)
धन्य! यह कमनीय कोशल भूमि परम ललाम,
'गुरु प्रसाद' विभूति लहि जहँ लखत जन 'श्रीराम'।
विमल मानस तें अभंग तरंग सरयू लाय,
विमल मानस बीच तुंग तरंग देति उठाय ।।
(2)
बाल दिनकर, जासु सैकत-राशि पै कर फेरि,
रामपद-नख-ज्योति निर्मल नित्य काढ़त हेरि।
जासु पुलिन पुनीत पै करि शंखनाद-प्रचार,
होति हैं भू-भार-हर की सदा जय-जयकार ।।
(3)
दलित जीवन के हमारे क्षीण सुर में लीन,
धर्म के जयनाद की यह गूँज अति प्राचीन।
नाहि हारन देति हिय में करति बल संचार,
देति आस बँधाय, टरि हैं अनय-अत्याचार ।।
(4)
मर्म-स्वर सब भूत को लै, करुण प्रेम जगाय,
आदि कवि, कल कंठ तें प्रगटी गिरा जहँ आय।
बैठि तुलसी जहाँ 'मानस' द्वार खोलि अनूप,
दियो सबहिं दिखाय हरि को लोक-रंजन रूप ।।

(5)
सकल सुषमा प्रकृति की लै, रुचिर भाव मिलाय,
गए श्री द्विजदेव जहँ पीयूष रस बरसाय।
निरखि वाही ठौर पै यह विज्ञ सुकवि-समाज,
होत पुलकित गात, हृदय प्रमोद-पूरित आज ।।

('माधुरी', नवंबर, 1925)

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