झलक -2 / रामचंद्र शुक्ल
कर से कराल निज काननों को काटकर,
शैलों को सपाट कर, सृष्टि को सँहार ले;
नाना रूप रंग धरे, जीवन उमंग-भरे,
जीव जहाँ तक बने मारते, तू मार ले।
माता धरती की भरी गोद यह सूनी कर,
प्रेत-सा अकेला पाँव अपने पसार ले;
विश्व बीच नर के विकास हेतु नरता ही,
होगी किंतु अल्म न, मानव! विचार ले ।।1
खेत बन बंजर कछार लगते हैं हमें,
माता धरती की खुली गोद के प्रसार से;
देते हैं दिखाई हाथ माय के प्रत्यक्ष जहाँ,
लालते औ पालते सभी को अति प्यार से।
विटप विहंग नर पशु जहाँ एक संग,
मिले-जुले पलते हैं एक परिवार से;
जहाँ विश्व-जीवन की धारा से न छिन्न अभी,
हुआ हैं मनुष्य निज दृष्टि के विकार से ।।2
ए हो बन बंजर कछार हरे-भरे खेत,
विटप विहंग! सुनो अपनी सुनावें हम;
छूटे तुम, तो भी चाह चित्ता से न छुटी यह,
बसने तुम्हारे बीच फिर कभी आवें हम।
सडे चले जा रहे हैं गडे अपने ही बीच,
जो कुछ बचा हैं उसे बचा कहाँ पावें हम;
मूल रस-स्रोत हो हमारे वही, छोड़ तुम्हें,
सूखते हृदय सरसाने कहाँ जावें हम! ।।3
रूपों से तुम्हारे पले होंगे जो हृदय वे ही,
मंगल की योग-विधि पूरी पाल पावेंगे;
जोड़ के चराचर की सुख-सुषमा के साथ,
सुख को हमारे शोभा सृष्टि की बनावेंगे।
वे ही इस महँगे हमारे नर-जीवन का,
कुछ उपयोग इस लोक में दिखावेंगे;
सुमन-विकास, मृदु आनन के हास, खग-
मृग के विलास-बीच भेद को घटावेंगे ।।4
नर में नारायण की कला भासमान कर,
जीवन को वे ही दिव्य-ज्योति सा जगावेंगे;
कूप से निकाल हमें छोड़ रूप-सागर में,
भव की विभूतियों में भाव-सा रमावेंगे।
वैसे तो न-जाने कितने ही कुछ काल कला,
अपनी दिखाते अस्त होते चले जावेंगे;
जीने के उपाय तो बतावेंगे अनेक, पर
जिया किस हेतु जाय वे ही बतलावेंगे ।।5
प्रकृति के शुद्ध रूप देखने को आँखें नहीं,
जिन्हें वे ही भीतरी रहस्य समझाते हैं;
झूठे-झूठे भावों के आरोप से आछन्न उसे,
करके पाखंड-कला अपनी दिखाते हैं।
अपने कलेवर की मैली औ कुचैली वृत्ति,
छोप के निराली छटा उसकी छिपाते हैं;
अश्रु श्वास, ज्वर ज्वाला नीरच रुदन, नृत्य,
देख अपना ही तंत्री-तार वे बजाते हैं ।।6
नर भव-शक्ति की अनंत-रूपता हैं बिछी,
तुझे अंध-कूपता से बाहर बढ़ाने को;
चारों ओर फैले महा-मानस की ओर देख,
गर्त में न गड़ा गड़ा, हंस! कुछ पाने को।
निज क्षुद्र छाया के यों पीछे दौड़ मारने से,
सच्चा भाव विश्व का न एक हाथ आने को;
रूप जो आभास तुझे सत्य-सत्य देंगे, बस,
उन्हीं को समर्थ जान अंतस जगाने को ।।7
ऐसे एक भाव पर झूठे-झूठे सैकड़ों ही,
स्वाँग 'आह ओह' के निछावर हैं नर के;
सारा विश्व जिसका चलाया हुआ चलता हैं,
वह भाव-धारा ढूँढ़ आँखें खोल करके।
आदिम ज्वलंत अनुराग कभी नाचता था,
रूप बाँध-बाँध नई-नई गति भर के;
रूप और भाव की अभिन्नता मिलेगी वह,
सृष्टि के प्रसार में; न मध्य घट-घर के ।।8
जिस सूक्ष्म सूत्र को पसार कर बँधा हुआ,
एक हैं अनेक होता गया वही भाव हैं;
खोज अनुबंध में अनेकता के उसे यदि,
निभृत निसर्ग-गति देखने का चाव हैं।
किंतु खंड दृष्टि से न शृंखला मिलेगी वह,
वहाँ ताक-झाँक से छिपाव ही छिपाव हैं;
संगत संबंध बिना होती नहीं व्यंजना हैं,
शब्द न बिखेर जहाँ उसी का अभाव हैं ।।9
वासना अज्ञान की उपासना बनेगी जहाँ,
और-और भंडता भी साथ लिए आवेगी हैं;
हाथ मटकाती, हाव भाव दिखलाती हुई,
आँख मूँद-मूँद सिर ऊपर उठावेगी।
पलकों को प्याला कह झूमती जँभाती हुई,
हाल से, हलाहल से मातना दिखावेगी;
देश के पड़ोस ही के पोंछे रंग पोत-पोत,
रूप वह अपना नवीन बतलावेगी ।।10
भौतिक उन्माद-ग्रस्त योरप पड़ा हैं जहाँ,
वहीं तेरे चोंचले ये मन बहलावेंगे;
आज अति श्रम से शिथिल जो विराम हेतु,
आकुल हैं उसको ये टोट के सुलावेंगे।
हम अब उठना हैं चाहते जगत्-बीच,
भारत की भारती की शक्ति को जगावेंगे;
दंडक ये दंड के प्रहार से लगेंगे तुझे,
भाग-भाग भंडता! न तुझको टिकावेंगे ।।11
धर्म कर्म व्यवहार, राष्ट्रनीति के प्रचार,
सब में पाषंड देख इतने न हारे हम;
काव्य की पुनीत भूमि बीच भी प्रवेश किंतु,
उसका विलोक रहे कैसे, धीर धारे हम?
सच्चे भाव मन के न कवि भी कहेंगे यदि,
कहाँ फिर जायँगे असत्यता के मारे हम?
खलेगा 'प्रकाशवाद' जिनको हमारा यह,
कहेंगे कुवाद वे जो लेंगे सह सारे हम? ।।12
आज चली मंडली हमारी एक घूमे हुए,
नाले का कछार धरे और ही उमंग में;
धुँधली-सी धूप धूल सने वातमंडल से
ढालती हैं मृदुता की आभा हर रंग में।
अंजित दृगंचल की कोर से किसी की खुल,
रंजित रसा में रसी झूमती तरँग में;
मानो मदभरी ढीली दृष्टि हैं किसी की बिछी,
मन को रमाती रम जाती अंग-अंग में ।।13
धौले कंकरीले कटे विकट कगार जहाँ,
जड़ों की जटा के जाल खचित दिखाते हैं;
निकल वहीं से पेड़ आडे बढे हुए कई,
अधर में लेटे हुए अंग लपकाते हैं।
भूमि की सलिल-सिक्त श्यामता में गुछी हरी,
दूब के पटल पट शीतल बिछाते हैं;
सारी हरियाली छाँट लाल-लाल छीटें बने
छिटक पलाश चित्ता बीच छपे जाते हैं ।।14
बातें भी हमारे साथ उठी चली चलती हैं,
मोद-पूर्ण मानस के मुक्त हैं अनेक द्वार;
चारों ओर छोटे बडे शब्द स्रोत छूट-छूट,
मिलते बढ़ाते चले जाते हैं अखंड धार।
उठती हैं बीच-बीच हास की तरंगें ऊँची,
झोंक में झुलाती टकराती हमें बार-बार;
झाड़ियाँ कटीली कर बैठती हैं छेड़छाड़,
उलझ सुलझ कोई पाता हैं किसी प्रकार ।।15
ढाल धरे ऊपर को ढुर्रियाँ गई हैं कई,
फैले हुए गर्त-जाल बीच से निकलती;
चाव-भरे चढे चले जाते हैं चपल गति,
चित्ता छोड़ अभी कहीं किसी की न चलती।
गंजिका के गुंफित अरुण हास और झाड़,
झापस झपेट छड़ी हाथ से फिसलती;
नीचे पड़ी पैर की धमाक; उड़ी ऊपर को,
पक्षियों की टोली फड़कीले पंख झलती ।।16
शिग्रओं की पीवर गँठीली पेड़ियों से फूटी,
सरस लचीली टूटी डालियाँ कहीं-कहीं;
नील-श्याम-दल-मढे छोर छितराए हुए,
शीर्ण मुरझाए फूल-झौंर हैं झुला रहीं।
कोरे धुंध-धूमले गगन-पट बीच खुले,
सेमलों की शाखा-जाल खचित खडे वहीं;
लसे हैं विशाल लाल संपुट से फूल चोखे,
बसे हैं विहंग अंग जिनके छिपे नहीं ।।17
आए अब ऊपर तो देखते हैं चारों ओर,
रूप के प्रसार चित्ता-रुचि के प्रचार से;
उछल उमड़ और झूम सी रही हैं सृष्टि,
गुंफित हमारे साथ किसी गुप्त तार से।
तोड़ा था न जिसे अभी खींच अपने को दूर,
मोड़ा था न मुँह को पुराने परिवार से;
उत्सव में, विप्लव में, शांति में प्रकृति सदा,
हमें थी बुलाती उसी प्यार की पुकार से ।।18
धुंधले दिगंत में विलीन हरिदाभ रेखा,
किसी दूर देश की-सी झलक दिखाती हैं;
जहाँ स्वर्ग भूतल का अंतर मिटा हैं चिर,
पथिक के पथ की अवधि मिल जाती हैं।
भूत औ भविष्यत् की भव्यता भी सारी छिपी,
दिव्य भावना-सी वहीं भासती भुलाती हैं;
दूरता के गर्भ में जो रूपता भरी हैं वही,
माधुरी ही जीवन की कटुता मिटाती हैं ।।19
निखरी सपाट कोरी चिकनी कठोर भूमि,
सामने हमारे श्वेत झलक दिखाती हैं;
जिसके किनारे एक ओर सूखी पत्तियों की,
पांडु-रक्त मेखला रणित हिल जाती हैं।
आस-पास धूल की उमंग कुछ दूर दौड़,
दूब में दमक हरियाली की दबाती हैं;
कंटकित नीलपत्रा मोड़ती घमोइयों के,
रक्त गर्भ-पीतपुट-दल छितराती हैं ।।20
ग्राम के सीमांत का सुहावना स्वरूप अब,
भासता हैं, भूमि कुछ और रंग लाती हैं;
कहीं-कहीं किंचित् हेमाभ हरे खेतों पर,
रह-रह श्वेत शूक-आभा लहराती हैं।
उमड़ी-सी पीली भूरी हरी द्रुम-पुँज-घटा,
घेरती हैं दृष्टि दूर दौड़ती जो जाती हैं;
उसी में विलीन एक ओर धरती ही मानो,
घरों के स्वरूप में उठी-सी दृष्टि आती हैं ।।21
देखते हैं जिधर उधर ही रसाल पुंज,
मंजु मंजरी से मढे फ़ूले न समाते हैं;
कहीं अरुणाभ, कहीं पीत पुष्पराग-प्रभा,
उमड़ रही हैं; मन मग्न हुए जाते हैं।
कोयल उसी में कहीं छिपी कूक उठी जहाँ,
नीचे बाल बृंद उसी बोल से चिढाते हैं;
छलक रही हैं रस माधुरी छकाती हुई,
सौरभ से पवन झकोरे भरे आते हैं ।।22
देख देवमंदिर पुराना एक बैठे हम,
वाटिका की ओर जहाँ छाया कुछ आती हैं;
काली पड़ी पत्थर की पट्टियाँ पड़ी हैं कई,
घेर जिन्हें घास फेर दिन का दिखाती हैं।
क्यारियाँ पटी हैं, लुप्त पथ में उगे हैं झाड़,
बाड़ की न आड़ कहीं दृष्टि बाँध पाती हैं;
नर ने जो रूप वहाँ भूमि को दिया था कभी,
उसे अब प्रकृति मिटाती चली जाती हैं ।।23
मानव के हाथ से निकाले जो गए थे कभी,
धीरे-धीरे फिर उन्हें लाकर बसाती हैं;
फूलों के पड़ोस में घमोय, बेर और बबूल,
बसे हैं, न रोक-टोक कुछ भी की जाती हैं।
सुख के या रुचि के विरुद्ध एक जीव के ही,
होने से न माता कृपा अपनी हटाती हैं;
देती हैं पवन, जल, धूप सबको समान,
दाख औ बबूल में न भेद-भाव लाती हैं ।।24
मेंड़ पर वासक की छिन्न पंक्ति-मक्खियों की,
भीड़ को बुला के मधु-बिंद हैं पिला रही;
कुंद की धवल हास-माधुरी उसी के पास,
श्वास की सुवास हैं समीर में मिला रही।
कोमल लचक लिए डालियाँ कनेर की जो,
अरुण प्रसून-गुच्छ मोद से खिला रही;
चल चटकीली चटकाली चहकार भरी,
बार-बार बैठ उन्हें हाव से हिला रही ।।25
कोने पर कई कोविदार पास-पास खडे,
वर्तुल विभक्त दलराशि घनी छाई हैं;
बीच-बीच श्वेत अरुणान झलराए फूल,
झाँकते हैं सुन ऋतुराज की अवाई हैं।
पत्तियों की कोट के कटाव पर फूली हुई,
आँखों में हमारी जपा झाँकती ललाई हैं;
भौंरे मदमाते मँड़राते गूँज-गूँज जहाँ,
मधुर सुमन-गीत दे रहा सुनाई हैं ।।26