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आमंत्रण / रामचंद्र शुक्ल

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(1)
दृग के प्रति रूप सरोज हमारे,
उन्हें जग ज्योति जगाती जहाँ,
जब बीच कलंब-करंबित कूल से,
दूर छटा छहराती जहाँ।
घन अंजन-वर्ण खड़े, तृण जाल को
झाईं पड़ी दरसाती जहाँ,
बिखरे बक के निखरे सित पंख,
विलोक बकी बिक जाती जहाँ ।।
(2)
द्रुम-अंकित, दूब भरी, जलखंड,
जड़ी धरती छबि छाती जहाँ,
हर हीरक-हेम मरक्त-प्रभा ढल,
चंद्रकला हैं चढ़ाती जहाँ।
हँसती मृदुमूर्ति कलाधर की,
कुमुदों के कलाप खिलाती जहाँ,
घन-चित्रित अंबर अंक धरे,
सुषमा सरसी सरसाती जहाँ ।।
(3)
निधि खोल किसानों के धूल-सने,
श्रम का फल भूमि बिछाती जहाँ,
चुन के, कुछ चोंच चला करके,
चिड़िया निज भाग बँटाती जहाँ।
कगरों पर काँस की फैली हुई,
धवली अवली लहराती जहाँ,
मिल गोपों की टोली कछार के बीच,
हैं गाती औ गाय चराती जहाँ ।।
(4)
जननी-धरणी निज अंक लिए,
बहु कीट, पतंग खेलाती जहाँ,
ममता से भरी हरी बाँह की छाँह,
पसार के नीड़ बसाती जहाँ।
मृदु वाणी, मनोहर वर्ण अनेक,
लगाकर पंख उड़ाती जहाँ,
उजली-कँकरीली तटी में धँसी,
तनु धार लटी बल खाती जहाँ ।।
(5)
दल-राशि उठी खरे आतप में,
हिल चंचल चौंध मचाती जहाँ,
उस एक हरे रँग में हलकी,
गहरी लहरी पड़ जाती जहाँ।
कल कर्बुरता नभ की प्रतिबिंबित,
खंजन में मन भाती जहाँ,
कविता, वह! हाथ उठाए हुए,
चलिए कविवृंद! बुलाती वहाँ ।।

(माधुरी, अक्टूबर, 1925)