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विनय पत्र / मनोज कुमार झा

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तुम भी तो भूल जाती प्रिये कभी किसी कथा की मुद्रिका
कोई तो कभी किसी यात्रा में दिखा हिरण
सबके भूलने के अपनी-अपनी खड़ाऊँ अपने-अपने मुकुट।
वो पंछी जो आता इधर कभी-कभार टिकता
थोड़ी देर तो तसवीर होती तेरे सेलफोन में
उड़ने का दुख तो मुझे भी
कि सबके मन में पंछियों का बसेरा
कहीं कोई नीड़ तो पिंजड़ा कहीं कोई
साँस गहरी मैंने खींची थी जरूर बेखयाली में
और इतने से उड़ तो सकता है कोई पंछी
मगर उसका जोड़ा भी तो आया था
वहाँ गर्दन हिलाता कि उधर है कहीं थोड़ा अन्न।
मानता मेरी स्मृति भी पककर फटा लदबद
दाड़िम छिटक गए होंगे दाने बहुत
तो आओ प्रिये लेकर आएँ तलघर में जल रहे रंगों के दिए
कोशिश करें पुनः कि हों पूर्ण चित्र
अपने और इंद्रधनुष पर भी मलें कुछ रंग नवल निखोट।