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चिंता / मनोज कुमार झा

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रहा करता था पहले चावल का दाना निर्भय और अनावृत
रहा होगा बहुत दिनों तक मौज
कि सिसोह लें दो-चार सीस1
       और डाल लें मुँह में
       पौधों की गंध सहित।
कहते हैं एक दिन ध्वस्त हो गया उपयोग और
             लोभ के बीच का संतुलन
और चावलों के दानों पर उगने लगे भूसे
लोभ तो बढ़ता ही जा रहा है
       तो क्या छुपना पड़ेगा चावल को
       सख्त खोल में नारियल की तरह
फिर औरतें फोड़ेंगी रखकर इन्हें सिलबट्टे पर
ओह! तब कुटाई हो जाएगी कितनी महँगी
और गरीब औरतों पर गिर पड़ेगा एक अतिरिक्त काम।
आप बचाएँ, आप बचाएँ ह्वाइट हाउस,
बकिंघम पैलेस और पार्लियामेंट को
पर इन धानों को भी तो बचाएँ
जिन पर चोट कर रहे हैं
खाद-पानी की महँगाई, ट्रान्सजेनिक चतुराई
       और मल्टीनेशनल टिड्डों के दल
श्रीमान, बचाएँ इन्हें, मनाएँ इन्हें
धान रुठ गए तो हम कहीं के नहीं रह जाएँगे
तब क्या आप ही बच पाएँगे और बच पाएगी
       यह पृथ्वी ही!