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फिर भी जीवन / मनोज कुमार झा

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इतनी कम ताकत से बहस नहीं हो सकती
           अर्जी पर दस्तखत नहीं हो सकते
इतनी कम ताकत से तो प्रार्थना भी नहीं हो सकती
इन भग्न पात्रों से तो प्रभुओं के पाँव नहीं धुल सकते
फिर भी घास थामती है रात का सिर और दिन के लिए लोढ़ती है ओस
चार अँगुलियाँ गल गई पिछले हिमपात में कनिष्ठा लगाती है काजल।