भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कदाचित बेसलीका / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:12, 26 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज कुमार झा }} {{KKCatKavita}} <poem> यह चाँदनी...' के साथ नया पन्ना बनाया)
यह चाँदनी मुझे भटका रही है
तुम आई याद बस इसलिए कि तुम याद क्यों नहीं आई
चाँद देखा तो वो चोर याद आया
जिसके लिए चाँदनी तीखा अम्ल है
सोचो! चार दिन के खरचे घर में आठ दिन है चाँद।
घुप्प अँधेरी रात में सोचा आम्रवृक्ष को जिसपर जुगनुओं की प्यारी बारात थी
तथापि एक चोर ही याद आया जिसकी बीड़ी की चोंच
जब जुगनू बन जाती थी तो अँधेरे में लिपटा वृक्ष
उसकी थकी देह को ओट देता था।
तुम ठीक ही कहती थी कि मुझे ठीक से सोने का भी सलीका नहीं
मेरे लोहे से सिर्फ सुई बन सकती है वो भी महज जानवरों के काँटों के लिए
मेरे चिंतन से भी यही फल निकला कि शयन का सौम्य तरीका तो सीख लूँ
पर अब भी वैसे ही सोता हूँ
जैसे कोई कृषकाय मूषक किसी विशाल शयनागार में अकुलाता।