भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुरइन मगन हो जाती है / रंजना जायसवाल
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:47, 28 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना जायसवाल }} {{KKCatKavita}} <poem> जब भी जी...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जब भी जीती हूँ
तुममें तुम आ जाते हो
मुझमें और हर लेते हो
मेरे अंदर का सूनापन
बाहर पसर जाती है एक चुप्पी
और भीतर मच जाती है हलचल
रातें सजल हो जाती हैं दिन तरल|
पोखर भर जाता है
पुरइन मगन हो जाती है |