आओ! / शमशेर बहादुर सिंह
1
क्यों यह धुकधुकी, डर, -
दर्द की गर्दिश यकायक साँस तूफान में गोया।
छिपी हुई हाय-हाय में
सुकून
की तलाश।
बर्फ के गालों में है खोया हुआ
या ठंडे पसीने में खामोश है
शबाब।
तैरती आती है बहार
पाल गिराए हुए
भीने गुलाब - पीले गुलाब
के।
तैरती आती है बहार
खाब के दरिया में
उफक से
जहाँ मौत के रंगीन पहाड़
है।
जाफरान
जो हवा में है मिला हुआ
साँस में भी है।
मुँद गयी पलकों में कोई सुबह
जिसे खून के आसार कहेंगे।
- खो दिया है मैंने तुम्हें।
2
कौन उधर है ये जिधर घाट की दीवार... है?
वह जल में समाती हुई चली गयी है;
लहरों की बूँदों में
करोड़ों किरनों
की जिन्दगी
का नाटक-सा : वह
मैं तो नहीं हूँ।
फिर क्यों मुझे (अंगों में सिमिट कर अपने)
तुम भूल जाती हो
पल में :
तुम कि हमेशा होगी
मेरे साथ,
तुम भूल न जाओ मुझे इस तरह।
× ×
एक गीत मुझे याद है।
हर रोम के नन्हें-से कली-मुख पर कल
सिहरन की कहानी मैं था;
हर जर्रे में चुम्बन के चमक की पहचान।
पी जाता हूँ आँसू की कनी-सा वह पल।
ओ मेरी बहार!
तू मुझको समझती है बहुत-बहुत - - तू जब
यूँ ही मुझे बिसरा देती है।
खुश हूँ कि अकेला हूँ,
कोई पास नहीं है -
बजुज एक सुराही के,
बजुज एक चटाई के,
बजुज एक जरा-से आकाश के,
जो मेरा पड़ोसी है मेरी छत पर
(बजुज उसके, जो तुम होतीं - मगर हो फिर भी
यहीं कहीं अजब तौर से।)
तुम आओ, गर आना है
मेरे दीदों की वीरानी बसाओ;
शे'र में ही तुमको समाना है अगर
जिन्दगी में आओ, मुजस्सिम...
बहरतौर चली आओ।
यहाँ और नहीं कोई, कहीं भी,
तुम्हीं होगी, अगर आओ;
तुम्हीं होगी अगर आओ, बहरतौर चली आओ अगर।
(मैं तो हूँ साये में बँधा-सा
दामन में तुम्हारे ही कहीं, एक गिरह-सा
साथ तुम्हारे।)
3
तुम आओ, तो खुद घर मेरा आ जाएगा
इस कोनो-मकाँ में,
तुम जिसकी हया हो,
लय हो।
उस ऐन खमोशी की - हया-भरी
इन सिमतों की पहनाइयाँ मुझको
पहनाओ!
तुम मुझको
इस अंदाज से अपनाओ
जिसे दर्द की बेगानारवी कहें,
बादल की हँसी कहें,
जिसे कोयल की
तूफान-भरी सदियों की
चीखें,
कि जिसे 'हम-तुम' कहें।
(वह गीत तुम्हें भी तो
याद होगा?)
[1949]