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चीन / शमशेर बहादुर सिंह

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मैंने
क्षितिज के बीचोबीच
खिला हुआ देखा
कितना बड़ा फूल!

देखकर
गम्भीर शपथ की एक
तलवार सीधी अपने सीने पर
रखी और प्रण लिया
कि :

वह आकाश की माँग का फूल
जब तक मैं चूम न लूँगा
चैन से न बैठूँगा।

और महान संदेश लिये
दौड़ता हुआ संदेशवाहक हो जैसे -
मैं दौड़ा :

चार दिशाओं का आलोक
सिर पर धारे
पाँवों में उत्‍साह के पर औ'
अक्षुण्ण गति के तीर
बाँधे।

और पहुँच कर वहीं
अपने प्रेम की
बाँहों में बाँहें डाल दीं मैंने
और
उस सीमा के ऊपर खड़े हुए
हम दोनों प्रसन्‍न थे।

अमर सौन्दर्य का
कोई इशारा-सा
एक तीर
दिशाओं की चौकोर दुनिया के बराबर
संतुलित
सधा हुआ
निशाने पर
छूटने-छूअने को था।
 
× ×
 
(हमारा अंतर
एक बहुत बड़ी विजय का
आलोक-चिह्न
है।)