भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सब गवाह हुए कातिलों के साथ / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:54, 2 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निश्तर ख़ानक़ाही }} {{KKCatGhazal}} <poem> रिश्...' के साथ नया पन्ना बनाया)
रिश्ता ही मेरा क्या है अब इन रास्तों के साथ
उसको विदा कर तो दिया आँसुओं के साथ
अब फ़िक्र है कि कैसे यह दरिया उबूर* हो
कल किश्तियाँ बँधी थीं इन्हीं साहिलों के साथ
अब फ़र्श हैं हमारे, छतें दूसरों की हैं
ऐसा अज़ाब पहले कहाँ था घरों के साथ
कैसा लिहाज़-पास, कहां की मुरव्वतें
जीना बहुत कठिन है,अब इन आदतों के साथ
बिस्तर हैं पास-पास मगर क़ुबर्ते* नहीं
हम घर में रह रहे हैं, अज़ब फ़ासलों के साथ
मैयत* को उठाके ठिकाने लगाइए
मौक़े के सब गवाह हुए कातिलों के साथ
1- उबूर--तप
2- क़ुबर्ते--निकटता
3-मैयत---मृतक