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दो चार राही पास-पास / निश्तर ख़ानक़ाही

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सिलवटें ही सिलवटें हैं टेढ़ी-मेढ़ी पास-पास
घर है जंगल और दीवारें हैं इतनी पास-पास

खा गया दोनों की आख़िर इक अजब ज़हराबे-तल्ख़*
साँस लेते आ रहे थे, झील नगरी पास-पास

सिर्फ़ इक पतली गली ही दरमियाँ है, देखिए
वज़अ-शाही, फ़ाकामस्ती और दिल्ली पास-पास

बूढ़ा बरगद, छाँव और कारें धुआँ देती हुईं
बैठ जाते हैं कभी दो चार राही पास-पास

और किसने इस तरह काटी है अपनी जिन्दगी
जैसे इक बिस्तर पे दो बच्चे हों, जिद्दी पास-पास

इतनी मुद्दत बाद आया है तो यों मुझको न देख
देख दुनियादार और मजबूर योगी पास-पास

1-ज़हराबे-तल्ख़*--विषाक्त जल