Last modified on 3 जुलाई 2013, at 12:14

देखो यह महल और के हैं / निश्तर ख़ानक़ाही

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:14, 3 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निश्तर ख़ानक़ाही }} {{KKCatGhazal}} <poem> दलदल...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दलदली ताल हमारे हैं, कमल और के हैं
हमने तो पेड़ उगाए हैं कि फल और के हैं

मुझमें क्या मेरा है, क्या तेरा नहीं है, मत पूछ
ज़हन मेरा है, मगर उसमें ख़लल और के हैं

आज से पहले जो आए थे, वो कल मेरे थे
आज के बाद जो जो आएँगे वो कल और के हैं

साँस लेने का गुनहगार हूँ मैं भी, तुम भी
वर्ना यह और के लम्हे हैं, यह पल और के हैं

कोई मालिक है ज़मीनों का तो फ़सलों का कोई
नाम तेरा है मगर खेत में हल और के है

दुखभरी नींद के आलम में यह शाही सपने
तुम कहाँ आ गए, देखो यह महल और के हैं