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देखो यह महल और के हैं / निश्तर ख़ानक़ाही
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दलदली ताल हमारे हैं, कमल और के हैं
हमने तो पेड़ उगाए हैं कि फल और के हैं
मुझमें क्या मेरा है, क्या तेरा नहीं है, मत पूछ
ज़हन मेरा है, मगर उसमें ख़लल और के हैं
आज से पहले जो आए थे, वो कल मेरे थे
आज के बाद जो जो आएँगे वो कल और के हैं
साँस लेने का गुनहगार हूँ मैं भी, तुम भी
वर्ना यह और के लम्हे हैं, यह पल और के हैं
कोई मालिक है ज़मीनों का तो फ़सलों का कोई
नाम तेरा है मगर खेत में हल और के है
दुखभरी नींद के आलम में यह शाही सपने
तुम कहाँ आ गए, देखो यह महल और के हैं