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वसन्त का सपना / सुधेश

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सुना वसन्त आया
मैं रहा शिशिर से लड़ता
आँसू की गर्मी के बावजूद
हड्डियों में जा बैठी ठण्डक
कमर पर टँगा रहा निष्ठुर मौसम
वसन्त में सूखे पत्तों का ढेर
आवारा घूम रहा
आँखों में धूल झोंकती रही निष्ठुर पुरवा।
मेरी आँखों में फिर भी
वसन्त का सपना।

मौसमों का क़म ओर मानव
गर्मी बहुत है
पर प्यार की गर्मी नहीं है
रिश्ते सारे विश्व से हैं
उन की डोर में अपने नहीं क्यों
रिश्ते मात्र औपचारिक हुए।
समय के चक़ में
बरसात भी आई झमाझम
उस के साथ अश्रु वर्षा
आपदा की बाढ़ भी
मन की किश्तियों को
बहा ले जाएगी अतल में।
धरती खिसक कर
सूर्य से कुछ दूर होती
सर्दी शुरु
वक़्त पर कभी बेवक्त
हड्डियों को कँपाती
तब गर्मी याद आई
बिछुड़ी प़ेमिका सी।
ग़ीष्म वर्षा शरद के बाद
शिशिर का क़म
न जाने कब से चला
कब तक चलेगा।
प़कृति के मंच का
पात्र है मानव
हंसेगा कभी रोयेगा
जगत नाटक कब तक चलेगा
शायद समय के अन्त तक।