जहाँगीरपुरी की औरतें
चल पडती है निन्हेबासी
और बच्चियाँ 
झुग्गियों के अंधेरे कुएँ से निकल
फैल जाती हैं 
आस-पास की पॉश कलोनियों में
महज झाडू-पोछा ही नहीं करतीं
करने निकलती है 
मल की सफाई भी
पन्नी चुगने 
और फैक्ट्रियों में ठुसने
ये काली गोरी पतली छोटी लम्बी
चेहरे पर वीरभाव रुआँसापन मुर्दानापन
तटस्थ- सा पीलापन लिए
बैठती हैं बस में
एक-एक रुपये के लिए 
खाती हैं कंडक्टर से घुड़कियाँ
पहुँचती हैं अपने-अपने गंतव्य
सुबह से निकली
लौटेंगी शाम को
धूल-धूसरित सूरज के साये में
अलसायी, थकी टूटी देह लिए।