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जहाँगीरपुरी की औरतें : २ / अनिता भारती
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जहाँगीरपुरी की औरतें
चल पडती है निन्हेबासी
और बच्चियाँ
झुग्गियों के अंधेरे कुएँ से निकल
फैल जाती हैं
आस-पास की पॉश कलोनियों में
महज झाडू-पोछा ही नहीं करतीं
करने निकलती है
मल की सफाई भी
पन्नी चुगने
और फैक्ट्रियों में ठुसने
ये काली गोरी पतली छोटी लम्बी
चेहरे पर वीरभाव रुआँसापन मुर्दानापन
तटस्थ- सा पीलापन लिए
बैठती हैं बस में
एक-एक रुपये के लिए
खाती हैं कंडक्टर से घुड़कियाँ
पहुँचती हैं अपने-अपने गंतव्य
सुबह से निकली
लौटेंगी शाम को
धूल-धूसरित सूरज के साये में
अलसायी, थकी टूटी देह लिए।