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विद्रोह की आग / उमा अर्पिता

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विवशताओं के पैने दाँत
हाड़-मांस में
गहरे तक गढ़ चुके हैं,
अँतड़ियों की भूख अँतड़ियों को ही
निगलने लगी है, और
मजबूरियों का ज़हर
धमनियों में लहू के साथ-साथ
रिसने लगा है!
विद्रोह की सुलगती आँच
थोथे आश्वासनों से नहीं
बुझा करती…
पैरों को अपने नीचे
ठोस धरातल की
आवश्यकता होती ही है!
अधर में लटककर
नहीं जिया जा सकता…
पल-पल की इस मौत से
क्या बेहतर नहीं
लड़ते-लड़ते एक बार मर जाना!