बंटवारा / शर्मिष्ठा पाण्डेय
बाप के मरते ही जायदाद यूँ बंटते देखी
थोड़े से कमरे और गलियारों में बिकते देखी
बर्तनों-राशनों के हिस्से भी लगाये गए
थालियाँ, लोटे और कटोरियाँ कटते देखी
बेचारा चूल्हा भी बच पाया कहाँ फैसले से
दाल तेरी तो रोटियां बने मेरी देखीं
चांदी-सोना तो बिके कबके सब पढाई में
घंटियाँ बैलों के गले की भी उतरते देखीं
बाप ने छोड़ा कहाँ कुछ भी सिवा कर्जों के
पूरी पंचायतों में यही शिकायत देखी
बहन की शादी में भाई ने किये खर्चे बहुत
एक-एक रूपया, रेजगारी भी गिनते देखी
बीज दे कौन, खाद किसकी, कौन पानी दे
पट्टीदारी में पड़ी खेतों की परती देखी
बाग़ और बगीचों की शपा फिर से पैमाइश हो
एक-एक पौधे, फल में घटत और बढ़त देखी
अनाज डेहरी के बँटने चाहिए दाना-दाना
आजकल चूहों की नीयत भी फिसलते देखी
मवेशी पहले ही बहुत हैं माँ को रक्खे कहाँ
बूढी चूड़ियों संग कलाई भी सिसकते देखी