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एक ग्राम्य गीत / शर्मिष्ठा पाण्डेय
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हाय बिधाता की मति मारी
सूख चली मोरी धान-कियारी
बदरा कहाँ छुपायो रे
बरखा से लड़ आयो रे
बात एक तोरी समझ न आवै
अपने मन की करता जावै
तोरे लड़कपन से मैं हारी
सूख चली मोरी धान-कियारी
अब एह बरस करूँ मैं का
बुझ जावै चूल्हा घर का
कईसे भेजूं तीज ननदिया
गीले नयना सूखी कलसिया
मार से भी न जावै सुधारी
सूख चली मोरी धान-कियारी
अब कईसे गाऊं कजरी
घोर असाढ़ सूखे शपा बजरी
माटी फट-फट दुखड़ा रोवै
करमजला तू चैन से सोवे
काहें पीर न बूझै हमारी
सूख चली मोरी धान-कियारी