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आइल रात अन्हरिया / रामनाथ पाठक 'प्रणयी'
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“आइल रात अन्हरिया ॥टेक॥
ठेहुन पर ले घूघ काढि़ के, निकसल कवन गुजरिया॥
भरल तरेगन से बा ऊपर, आसमान के छाती।
बकिर हाय कहूँ ना नीचे, घर में दीया बाती॥
झींगूर के झनकार साँझ से, सजा रहल बँसवारी।
घर के भीतर चोर घुसल बा, टूटल परल केवारी॥
खून बहल कतना के, कतना लाशे भइल नपाता।
रोज रोज के जुलूम मचल बा, कहले हाय! कहाता॥
आवो नींन भला आँखी में कइसे एको घरिया।