भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोस्ती के आम / रति सक्सेना

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:42, 29 अगस्त 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाजार भरा है आमों से
ठसाठस भरे ठेले, दूकाने
सड़कों के किनारे के ढ़ेर

आम
कहीं भी हों
लपक कर दौड़ता है मन
खाने को

आम के मौसम में
निराश रहते हैं
तमाम छोटे...मोटे
कुरूप सुरूप फल

आम का कहना क्या
इसकी तुलना सिर्फ एक से हो सकती है
वह है दोस्ती

दोस्ती भी आम की तरह
भरभरा कर चली आती है
मुँह में स्वाद घुलने घुलने तक
छूछी गुठली हाथ रह जाती है

दोस्ती की गुठली पर
मुँह मारते हम
कल्पना करते हैं उन दिनों की
जब वह रसीली, गुदीली और
भरी भरी हुआ करती थी

कभी कभी दोस्ती
आम की तरह ही
बाहर से लुभाती है
किन्तु
खाँप मुँह में रखते ही
बेस्वाद निकल जाती है
कभी कभी दोस्ती
बाहर से कड़ियल, बदरंग होती है
किन्तु हर रेशे में
दावत का रंग देती है
अक्सर होता है मेरे साथ
जब मैं आम को देखती हूँ
दोस्ती याद आती है
दोस्ती के चलते
आम भुला जाती हूँ