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बातचीत अपने आप से / विजया सती

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अभी अपने कमरे में थी तुम
किताबों के पन्ने पलटती -
कविताएँ पढ़ती,
कब जा चढ़ी कंचनजंघा पहाड़
जिसे तुमने कभी देखा ही नहीं?

और उस दिन बरसात के बाद
दिखा था जब इन्द्रधनुष
क्यों देखती ही रह गई थी तुम
जबकि सीटियों पर सीटियाँ दे रहा था
कुकर रसोई में?
क्यों तुमने बना लिया है मन ऐसा
कि झट जा पहुँचता है वह
पुरी के समुद्र तट पर?
कभी फूलों की घाटी से होकर
मैदान तक दौड़ जाता है तुम्हें बिना बताए?

अब इसी समय देखो न -
कितने-कितने चेहरे और दृश्य और
उनसे जुड़ी बातें
आ-जा रही हैं तुममें
बाँसुरी की तान के साथ झूमता
नीली आँखों वाले लड़के का चेहरा,
घर की सीढ़ियों पर गुमसुम बैठी
उस बच्ची का चेहरा
जिसके ममी-पापा आज फिर लड़े हैं!
अब तुम्हारे भीतर करवट ले रहा है
बचपन के विद्यालय में उगा
बहुत पुराना इमली का पेड़
बस दो ही पल बीते
कि चल दी
दिल्ली परिवहन की धक्का-मुक्की के बीच राह बनाती
सीधे अपने प्रिय विश्वविद्यालय परिसर !
अब सुनोगी भी या
मकान बनाते मजदूरों को देख
बस याद करती रहोगी कार्ल मार्क्स!
कितनी उथल-पुथल से भरा
बेसिलसिलेवार-सा
एक जमघट है तुम्हारा मन
यह तो कहो कि क्यों
एक-सा स्पंदित कर जाता है तुम्हें
फिराक का शे'र
और तेंदुलकर का छक्का?