भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहीं चहकेले चिरई...! / पाण्डेय कपिल

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:29, 31 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पाण्डेय कपिल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहीं चहकेले चिरई
कहीं ढोल बाजेला!
ना घरे में लागेला मन
ना बने में लागेला!
जे खुदे नाद से जनमल बा
ओह ब्रह्माण्ड में
कहाँ मिल पाई हमरा
सुनसान ठवर
जहाँ हम उदासी के केंचुल
चढ़ा-चढ़ा के
उपजा सकीं
तलफत जहर!
सोच-सोच
अपने पर हँसी आवेला
ना घरे में लागेला मन
ना बने में लागेला!
इरखा के आँच में
उफनाइल
फेन फेंकत मन के
बैरागी बाना
अझुरा ना सके
रेशम के कीड़ा जइहन
अपने बीनल जाल
काट-काट के
तनिको
सझुरा ना सके!
ना मने में लागेला मन
ना तने में लागेला!
ना घरे में लागेला मन
ना बने में लागेला!