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सरल अभिलाषा / श्रीकृष्ण सरल

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नहीं महाकवि और न कवि ही, लोगों द्वारा कहलाऊँ
सरल शहीदों का चारण था, कहकर याद किया जाऊँ
लोग वाह वाही बटोरते, जब बटोरते वे पैसा
भूखे पेट लिखा करता वह, दीवाना था वह ऍसा।

लोग कहें बंदूक कलम थी, वह सन्नद्य सिपाही था
शौर्य–वीरता का गायक वह, वह काँटों का राही था
लिख बलिदान कथाएँ वह, लोगों को आग्रह करता था
उनकी शिथिल शिराओं में, उफनाता लावा भरता था।

लोग कहें वह दीवाना था, जिसे देश की ही धुन थी
देश उठे ऊँचे से ऊँचा, मन में यह उधेड़–बुन थी
कभी किसी के मन में उसने, कुंठा बीज नहीं बोया
वीरों की यश गाथाओं से, हर कलंक उसने धोया।

मन्दिर रहा समूचा भारत, मानव उसको ईश्वर था
देश–धरा समृद्ध रहे यह, यही प्रार्थना का स्वर था
भारत–माता की अच्छी मूरत ही रही सदा मन में
महाशक्ति हो अपना भारत, यही साध थी जीवन में।

अन्यायों को ललकारा, ललकारा अत्याचारों को
रहा घुड़कता गद्दारों को, चोरों को बटमारों को।
रहा पुजारी माटी का वह, मार्ग न वह यह छोड़ सका,
हिला न पाया, कोई भी आघात न उसको तोड़ सका।

कोई भाव अगर आया तो, यही भाव मन में आया,
पाले रहा दर्द धरती का, गीतों में भी वह गाया—
हे ईश्वर ! यह भारत मेरा, दुनिया में आदर पाए,
गौरवशाली जो अतीत था, वही लौटकर फिर आए।

भारत–वासी भाई–भाई, रहें प्यार से हिलमिल कर,
कीर्ति कौमुदी फैलाएँ वे, फूलों जैसे खिल–खिल दर।
सबके मन में एक भाव हो, अच्छा अपना भारत हो,
सबकी आँखों में उजले से उजला सपना भारत हो।