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झोला और बच्चा / भूपिन्दर बराड़

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पिता ने रखा झोला
तो उसमे थी दफ्तर की थकान
रोटी का खाली डिब्बा
रास्ते की धुल
बसों का धुआं

पिता ने झोला खोला
तो बच्चा कूदा:
झोले में थीं मीठी गोलियां
और बबलगम

गुबारा फुलाते बच्चे ने सोचा
अगला महीना आते ही
फिर खुलेगा झोला
बच्चे के पास था
बहुत सा समय

पिता ने झोला रखा
तो उसमे था शाम का अख़बार
शहर में हुए दंगों को लेकर
दफ्तर में छिड़ा विवाद
आने वाले दिनों की चिंता
घर की फ़िक्र

पिता ने झोला खोला
तो बच्चा उछला:
झोले में थी छुकछुक करती ट्रेन

गाडी दौड़ाते बच्चे ने सोचा
अगला महीना आते ही
जादू के झोले से
शायद निकले पतंग की डोर

पतंगों से घिरे आकाश तले
बेसुध बच्चे ने नहीं सुनी
साथ वाले कमरे से आती
माँ की फुसफुसाती आवाज़

पिता ने झोला रखा
तो उसमे था जलते मकानों का धुआं
बाज़ारों में दौड़ते लोगों की चीखें
सहम नारे और बदहवास हवा

बच्चे ने झोला देखा
तो उसमे था
पिता का हाथों में लिया सर
बच्चे ने झोला थामा
तो उसमे पिता नहीं थे
बच्चे ने खोली अख़बार
तो उसमे खबर तक न थी

रोता हुआ बच्चा बड़ा होने लगा
रेडिओ पर सुनते हुए
कि शहर में शांति लौट रही थी
तेज़ी से