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किसान / द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र'

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धन धन रे मोर किसान, धन धन रे मोर किसान। मैं तो तोला जांनेव तैं अस, भुंइया के भगवान।। तीन हाथ के पटकू पहिरे, मूड म बांधे फरिया ठंड गरम चउमास कटिस तोर, काया परगे करिया अन्‍न कमाये बर नई चीन्‍हस, मंझन, सांझ, बिहान।

तरिया तिर तोर गांव बसे हे, बुडती बाजू बंजर चारो खूंट मां खेत खार तोर, रहिथस ओखर अंदर रहे गुजारा तोर पसू के खिरका अउ दइहान।

बडे बिहनिया बासी खाथस, फेर उचाथस नांगर ठाढ बेरा ले खेत जोतथस, मर मर टोरथस जांगर तब रिगबिग ले अन्‍न उपजाथस, कहॉं ले करौं बखान।

तैं नई भिडते तो हमर बर, कहॉं ले आतिस खाजी सबे गुजर के जिनिस ला पाथन, तैं हस सबले राजी अपन उपज ला हंस देथस, सबो ला एके समान। धन धन रे मोर किसान, धन धन रे मोर किसान।।