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खानाबदोश औरतें / सुधा उपाध्याय

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सावधान...
इक्कीसवीं सदी की खानाबदोश औरतें
तलाश रहीं हैं घर
सुना है वो अब किसी की नहीं सुनतीं
चीख चीख कर दर्ज करा रही हैं सारे प्रतिरोध
जिनका पहला प्रेम ही बना आखिरी दुःख
उन्नींदी अलमस्ती और
बहुत सारी नींद की गोलियों के बीच
तलाश विहीन वे साथी जो दोस्त बन सकें
आज नहीं करतीं वे घर के स्वामी का इंतज़ार
सहना चुपचाप रहना कल की बात होगी
जाग गयी हैं खानाबदोश औरतें
अब वे किस्मत को दोष नहीं देतीं
बेटियां जनमते जनमते कठुवा गयी हैं