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इस रिश्ते को क्या नाम दूँ / प्रताप सहगल

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सड़क पर
जब मैंने पाँव रखा
पाँव और सड़क के रिश्ते में
थरथराहट हुई
चलता रहा
सड़क पर
और रिश्ता गहराता रहा
कहाँ से शुरू होती है
सड़क
कहां पर खत्म
बार-बार जानने की इच्छा
कभी जंगलों
और कभी समुद्र-तल ले गई।
जंगल को घेरती है सड़क
समुद्र को चीरती है सड़क
क्षितिज से भी परे
आसमानों को भेदती
कहीं निकल जाती है सड़क
कभी कहकशाँ
तो कभी फूलों का सैलाब
बन जाती है सड़क
कोई सिरा हाथ नहीं आता
कोई टुकड़ा
टुकड़े का कोई अंश
बार-बार फिसल जाता है हाथों
से
पर सड़क से रिश्ता कायम है
जैसे नाख़ून और मांस का रिश्ता
रिश्ता आँख और पुतली का
या दिल और धड़कन का
सड़क नहीं चुकती कहीं भी
चुकता हूँ मैं
सड़क नहीं रुकती
रुकता हूँ मैं
नहीं रीतती सड़क कभी भी
रीतता हूँ मैं
सड़क नहीं रुकती
रुकता हूं मैं
सड़क ज़िंदा है
अपनी निरंतरता में
रहस्यों को अपनी गोद में
खिलाती
और थपथपाती
कनपटी के ठीक नीचे
धीरे-धीरे
सड़क ज़िंदा है
सदियों के बहाव के बावजूद
ज़िंदा है सड़क
अपनी निरंतरता में और मैं भी कहीं
हलकी-सी थरथराहट के साथ
सड़क पर
सड़क के साथ।