भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सांध्य काल / कविता मालवीय

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:58, 3 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता मालवीय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात शाम को निगलने को है
अहंकारी सूरज पिघलने को है
पंछी वापस निकलने को है
जमाया हुआ ताम झाम गलने को है
बुझने से पहले शमा तेज़ जलने को है
मंजिल मिलने से पहले दो पल सँभलने को है
थके हुए पथिक ने
गर्व से सालों से कांख में दबी
भारी भरकम
कर्म पोथी पर नज़र दौड़ाई
वहां अध्याय तो थे
और उनके शीर्षक भी
पर बियाबान खाली कफ़न से
सफ़ेद पन्नों को देख
आँसू की बूंद
अपनी मंजिल भूल आई
कि डूबती संध्या
पथिक के कानो में फुसफुसाई
तुम खेले तो बहुत पर
तुम्हारी कोई भी करनी
इबारत न बन पाई