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कविता के जरिए / प्रताप सहगल

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कविता कोई तीर नहीं
न भाला/ना बरछा
कविता कोई बेजान
मूर्त्ति के लिए भक्तिभाव भी नहीं.

न कविता
मचलती
आभूषणों से लदी
कोई औरत है.

कविता बन्दूक की गोली भी नहीं
न छुरा/न रापी
और न ही लाली पाप.
मैं तो कविता के जरिए
अपने पूरे काले कारनामों के साथ
आप तक पहुंचना चाहता हूं
लगाना चाहता हूं आपके अन्दर
एक सेंध
और तोड़ देना चाहता हूं
अपने/और सबके मुखौटे
मेरे लिए कविता
एक तेज़ अहसास की आग से
गुज़रना है
कविता के ज़रिए
कुछ तोड़ना और कुछ गढ़ना है
शब्दों को नग्न करके
बाजार में बीच चौराहे खड़ा करना है.
कविता की आग
जलाती है
कुछ बदशक्ल दाग़
कहीं अन्दर छोड़ जाती है
कविता को
इसलिए माफ करना मुश्किल है दोस्त !
मैं कविता के ज़रिए
मन्दिरों में स्थापित बुतों
मठों में स्थापित ठूंठों
और मंचों पर स्थापित
नकली दांतों को तोड़ना चाहता हूं.
कविता के ज़रिए
इतना ऊंचा छलाँगना चाहता हूं
कि
जिससे लग सके
आकाश में सुरंग