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मश-राक्षस / प्रताप सहगल

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चल रहा होऊं
सड़क पर
खेत में या कि
किसी फैक्ट्री में
बैठा होऊं
आराम गद्दों पर
मेज़ पर लिखते वक्त
या पतंग उड़ाते हुए
कविता रचते हुए
या किसी होटल में खाते हुए
महसूस हर जगह
यही होता है
जकड़ लिया है
मुझे मश-राक्षस ने.
मश राक्षस !
किसी पौराणिक कथा में
इसका कोई उल्लेख नहीं
न ही
कोई धर्म रक्षक
इसके नाम से
डराता है लोगों को
पर महसूस यही होता है
पिछली दो शताब्दियों से
इसका आकार
धीरे-धीरे बड़ा हो रहा है
हो रहा है
कहीं भी रुका नहीं.
दादी मां
राक्षसों की शक्लों का
बखान बड़ा भयँकर किया करती थीं
पर इसकी शक्ल वैसी
डरावनी तो नहीं.
बल्कि लुभावनी है
इसके दाँत बड़े
नुकीले और तेज़ हैं
इसने धीरे-धीरे
कुतर दिया है
मेरे पूरे अस्तित्व को
मेरे ही क्यों/ पूरी की पूरी पीढ़ी को
बना रहा है आरामतलब.
यह न थकता है
न रुकता है
न बिगड़ता है
केवल संकेत से
ठक-ठक-ठक...
धप्प-धप्प-धप्प...
घुर्र-घुर्र-घुर्र...
बड़ा संगीत है
इसके गले में
बड़े-बड़े बाज़ू
लम्बी टाँगें
गर्म गोले-सी तेज़ आँखें
एकदम
फौलाद की माफिक मज़बूत.
इस मश-राक्षस ने
सदियों के अन्तराल को
बदल दिया है
चन्द दिनों/घण्टों /या
मिनटों में
पर बात यह है
कि यह खुद तो लगातार
बड़ा होता रहा है
हर उत्सव/त्यौहार के साथ
और इसने धीरे-धीरे
छोटा कर दिया है
आदमी को.
आदमी की मुसीबत देखिए
अन्दर से वह पहले ही छोटा था
और उसके बाहर का बड़ापन भी
खा गया है
यह मश-राक्षस.