Last modified on 13 अक्टूबर 2013, at 18:47

फैक्टरी के बाहर / प्रताप सहगल

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:47, 13 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप सहगल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दृश्य-1

मैंने देखा है
फैक्टरी के बाहर
आधी छुट्टी का भोंपू बजते ही
रोटी की दौड़ में
भागते
बेतहाशा आदमी
जैसे श्मशान से
चली हो शवयात्रा
अधनँगी और बेतरतीब.
उनकी दौड़ चक्करदार
चक्कर एक/चक्कर दो/चक्कर तीन
चक्कर चार/पांच/दस/सौ/हज़ार/बेहिसाब
और लुढ़ककर गिरते हुए एक के बाद एक.
भोंपू रोज बजता है
दौड़ भी रोज़ होती है
रोज़ लुढ़कते हैं वे लोग
बनते हैं बैसाखियां
उनके लिए
जो उनसे बहुत दूर
लगातार ऊपर होते चले जाते हैं
वे नहीं देख पाते उनका सच.
उनका सच हम/तुम भी नहीं देख सकते मेरे दोस्त !
या न देख पाने का करते हैं ढोंग
क्योंकि उनका सच
सिर्फ कड़वा या कसैला ही नहीं
जानलेवा भी है.


दृश्य-2

अन्दर मशीनें बन्द हैं
बाहर आदमी.
और लाउडस्पीकर का जेहाद
झण्डों की बारात
नारों का घटाटोप
और तनी मुट्ठियों की कतार
उन मुक्कों में बन्द है क्रांति
बस बन्द है.
झण्डे ज़रूर फड़फड़ाते हैं
घूमती हैं इधर उधर गर्दन भी
तनती हैं नसें,
उठती हैं मुट्ठियाँ
फैलती है उनकी जिस्मानी आग
धधकती हैं आंखें,
लेकिन
मुक्के फिर भी बन्द हैं
फौलादी
न खुलते हैं
न गिरते हैं
न उठते हैं
बस बन्द/तने