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चश्मेशाही पर थोड़ा वक्त / प्रताप सहगल

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मैंने उस दिन बादलों से बात की थी
भर लिया था उन्हें अपनी बाँहों में
महसूस किया था उनकी सपनीली ठंडक को
उठा लिया था अपने कन्धों पर
और उछाल दिया आकाश की ओर
सुरमई नहीं धुएंदार बादल

चश्मेशाही ने हल्के सलेटी रंग की
शाल ओढ़ रखी थी
मैं गिन सकता था
शाल के तार-तार
हरियाली पी सकता था
बादलों पर तैर सकता था
चश्मेशाही पर गुज़ारे थोड़े से वक्त ने
यह अहसास दिया
खूबसूरती पर लिखना बहुत मुश्किल है, दोस्त!
उसे देखा जा सकता है
जिया जा सकता है
पिया जा सकता है।

1980