भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चश्मेशाही पर थोड़ा वक्त / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:53, 14 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप सहगल |अनुवादक= |संग्रह=आदि...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मैंने उस दिन बादलों से बात की थी
भर लिया था उन्हें अपनी बाँहों में
महसूस किया था उनकी सपनीली ठंडक को
उठा लिया था अपने कन्धों पर
और उछाल दिया आकाश की ओर
सुरमई नहीं धुएंदार बादल
चश्मेशाही ने हल्के सलेटी रंग की
शाल ओढ़ रखी थी
मैं गिन सकता था
शाल के तार-तार
हरियाली पी सकता था
बादलों पर तैर सकता था
चश्मेशाही पर गुज़ारे थोड़े से वक्त ने
यह अहसास दिया
खूबसूरती पर लिखना बहुत मुश्किल है, दोस्त!
उसे देखा जा सकता है
जिया जा सकता है
पिया जा सकता है।
1980