भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जम्मू से कश्मीर / प्रताप सहगल

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:54, 14 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप सहगल |अनुवादक= |संग्रह=आदि...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक स्क्रीच/एक झटका
और हम जम्मू स्टेशन पर थे
सूरज ने बांहें खोलकर
हमारा स्वागत किया
और हमने खुशगवार हवाओं के ज़रिए
उसे शुक्रिया भेजा

लम्बी कतार/टिकट खिड़की
अब बस-सवार होकर हम रवाना हो गए
बरसों पहले सुना था पिता से
स्वर्ग है एक ही दुनिया में कश्मीर
उससे रु-ब-रु होने

मोड़-दर-मोड़-दर-मोड़
एक लम्बी यात्रा/एक लम्बी नदी
भूले नहीं थे अभी
पटनीटाप की सर्दीली हवा
घुस चुके थे यादगारों की सुरंग में

सिलसिलेवार याद करना कितना मुश्किल होता है
चीज़ों को
पर याद है
नेहरू सुरंग पार करते ही हमने स्वेटर पहन लिये थे
लम्बे पेड़/तने पेड़
हम पीछे छोड़ आए थे/वही थे आगे
वही थे हमारे सहयात्री भी
सूरज ने पलकें मूंद ली थीं
जब हम श्रीनगर पहुंचे
बसों के जमघट में
ठिठुरन कहीं खत्म हो गयी थी
और हम मलंग बने
एक छोटे से कमरे में
कैद हो गए।

1980