भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विसंगति / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:30, 14 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप सहगल |अनुवादक= |संग्रह=आदि...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मेरी घड़ी में सिर्फ दिन बजते हैं
मैं हर दिन के साथ लम्बाकार हो जाता हूं
और धुआं खाकर
बसों के शोर में खो जाता हूं
1969