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देस री ओळूं मांय / मदन गोपाल लढ़ा

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केसरिया बालम आवो नीं
पधारो म्हारै देस ...
मिसरी सूं मीठी है
थारै मोबाईल री कालरटून
थमो-थमो सुनयना !
मती उठावो म्हारो फोन
थारै सागै बंतळ सूं पैलां
म्है इण गीत नै सूणनो चावूं ।

घर सूं चार सौ कोस आंतरै बेठ्यो म्हैं
इण गीत री मीठी धुन रै मारफत
घर रो गेड़ो लगावणो चावूं।

खंभात री खाड़ी खंनै सौराष्ट्र में
है म्हारो रैवास
कोई मजा रै भाळै कोनी
जीविका री मजबूरी है
नींतर म्हनैं तो अजैं ईं
रोजींनै धोरां रा सपनां आवै।

लारलै दिनां री बात है
अलंग षिपयार्ड सूं
साग-भाजी खरीदता थकां
जो सूं म्हनैं
एक बाड़मेरी मजूर मिलग्यो
सांचाणी
उणरै बांथ घाल‘र
रोवण रो जी करयो।

म्हैं बाड़मेर कोनी देख्यो
कोनी बठै म्हारो कोई समंध-सगपण
पण कांई ठाह क्यूं
बो बाड़मेरी मजूर
आपरो-सो लाग्यो म्हनैं।

इण स्यूं बत्ती कांईं हुसी
कै इण नागण जैड़ै
राजमारग आठ ई माथै
आर जे नम्बर वाळी
गाड़ी देख्यां ई
हियै री कळी-कळी खिल जावै।

थूं हासैंला
म्हारी बातां नै
गैलायां मान‘र
पण कूड़ कोनी कैवूं
‘देस’ नै जाणणै खातर
दिसावरी घणी जरूरी हुवै।

कोनी समझी गैली !
बिंयां किणी चीज नै आपां
गमायां पछै ई तो सावळ जाणां
गमायां पछै ई तो
उणरी करां चावना।